खय्याम नहीं रहे लेकिन अपने पीछे जो सुरों की विरासत वो छोड़ गए हैं उसने उनके नाम को हमेशा के लिए अमर कर दिया। 18 फरवरी, 1927 को पंजाब के जालंधर जिले के नवाब शहर में जन्मे मोहम्मद जहूर खय्याम हाशमी ने19 अगस्त 2019 को इस दुनिया से अलविदा कहा। पढ़े परिवार में पैदा हुए खय्याम अपने पिता की चौथे बेटे थे। संगीत के शौक ने इन्हे घर से भागना पड़ा। तब तक खय्याम की पढ़ाई पांचवीं तक ही थी।
मुंबई में खय्याम के मामाजी थे जो संगीत के रसिया थे। उन्होंने मुंबई में खय्याम को बाबा चिश्ती से मिलवाया। जो बी.आर. चोपड़ा की फिल्म 'ये है जिन्दगी' का संगीत तैयार कर रहे थे। बाबा ने उन्हें अपना सहयोगी तो बना लिया मगर बिना किसी सेवा शुल्क। संगीतकार खय्याम ने फिल्म रोमियो एंड जूलियट में एक्टिंग भी की है। खय्याम ने मज़रूह सुल्तानपुरी, साहिर लु्धियानवी, कैफ़ी आज़मी जैसे दिग्गज गीतकारों के लिए गज़लकारों के लिए संगीत दिया है "इन आंखों की मस्ती के" और "ये क्या जगह है दोस्तों" को भुला पाना आसान नहीं।
खय्याम का संगीत की दुनिया का सफर 17 साल की उम्र में लुधियाना से शुरू हुआ। संगीतकार के तौर पर अपने करियर की शुरुआत 1948 में फिल्म ‘हीर रांझा’ की थी। 'वो सुबह कभी तो आएगी', 'शामे गम की कसम', 'जाने क्या ढूंढती रहती हैं ये आंखें मुझमें','तुम अपना रंजो गम अपनी परेशानी मुझे दे दो', 'बुझा दिए हैं खुद अपने हाथों, 'ठहरिए होश में आ लूं', 'बहारों मेरा जीवन भी संवारो' और 'चंदा रे मेरे भैया से कहना बहना याद करे 'जैसे कई गानों संगीत से सजाया। खय्याम को मोहम्मद रफी के गीत 'अकेले में वह घबराते तो होंगे' से उन्हें बॉलीवुड में पहचान मिली।
'उमराव जान' ने उन्हें बतौर संगीतकार शोहरत का वो चमकता सितारा बना दिया जो कभी धूमिल नहो हो सकता। खय्याम हमेशा एक क्लासी और शानदार संगीतकार के तौर पर याद किये जायेंगे। 2007 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड और 2011 में भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण से नवाजा गया। उमराव जान के अलावा के अलावा जिन फिल्मों में उनका संगीत सदाबहार बन गया उनमें कभी कभी, 'फिर सुबह होगी' थोड़ी सी बेवफाई, बाजार, नूरी, दर्द, रजिया सुल्तान, पर्वत के उस पार, त्रिशूल जैसी फिल्मों का शुमार है। खय्याम ने 92 साल की एक बेहतरीन ज़िंदगी गुज़ारी।